राजनांदगांव जिले के डोंगरगढ़ के चंद्रगिरी में जैन आचार्य विद्यासागर महाराज ने 18 फरवरी 2024, रात्रि 02ः35 बजे समाधि ली. दिगंबर मुनि परंपरा के आचार्य विद्यासागर महाराज ने छत्तीसगढ़ के चन्द्रगिरि तीर्थ में शनिवार (17 फरवरी) देर रात 2:35 बजे अपना शरीर त्याग दिया था. पूर्ण जागृतावस्था में उन्होंने आचार्य पद का त्याग करते हुए 3 दिन का उपवास लिया था और अखंड मौन धारण कर लिया था, जिसके बाद उन्होंने प्राण त्याग दिए, लेकिन क्या आप जानते हैं कि आचार्य विद्यासागर महाराज कौन थे और पीएम मोदी इनके परम भक्त भी थे.
पीएम मोदी ने एक ट्वीट करते हुए लिखा कि आचार्य श्री 108 विद्यासागर महाराज के अनगिनत भक्त हैं. आने वाली पीढ़ियां उन्हें समाज में उनके अमूल्य योगदान के लिए याद रखेंगी. आध्यात्मिक जागृति के उनके प्रयासों, गरीबी उन्मूलन, स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा और अन्य कार्यों के लिए उन्हें याद रखा जाएगा. इसके अलावा चलिए जानते हैं आचार्य विद्यासागर महाराज के बारे में…
जैन आचार्य विद्यासागर महाराज जैन धर्म के एक महान संत और समाज सुधारक थे. उनका जन्म 10 अक्टूबर 1946 को कर्नाटक के बेलगावी जिले के सदलगा में हुआ था. उनका जन्म का नाम विद्याधर था. इसके पिता का नाम मल्लप्पाजी अष्टगे (मुनिश्री मल्लिसागरजी) और माता का नाम आर्यिकाश्री समयमतिजी था. आचार्य विद्यासागर के चार भाई और दो बहने भी थीं.
कौन हैं आचार्य विद्यासागर महाराज?
आचार्य विद्यासागर महाराज एक अत्यंत श्रद्धेय दिगंबर जैन आचार्य (दिगंबर जैन भिक्षु) हैं जो अपनी असाधारण विद्वता, गहन आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि और तपस्या और अनुशासन के जीवन के प्रति अटूट प्रतिबद्धता के लिए पहचाने जाते थे. 10 अक्टूबर, 1946 को कर्नाटक के सदलगा में जन्मे, उन्होंने छोटी उम्र से ही आध्यात्मिकता को अपना लिया और 21 साल की उम्र में राजस्थान के अजमेर में दीक्षा लेने के लिए सांसारिक जीवन त्याग दिया था. विद्यासागर का बचपन का नाम विद्याधर था.
आचार्य विद्यासागर महाराज जैन शास्त्रों और दर्शन के अध्ययन और अभ्यास में गहराई से डूबे हुए थे. संस्कृत, प्राकृत और कई आधुनिक भाषाओं में उनकी महारत ने उन्हें कई व्यावहारिक कविताएं और आध्यात्मिक ग्रंथ लिखने में सक्षम बनाया था. निरंजना शतक, भावना शतक, परिषह जया शतक, सुनीति शतक और श्रमण शतक सहित उनके कार्यों का जैन समुदाय के भीतर व्यापक रूप से अध्ययन और सम्मान किया जाता था. उन्होंने काव्य मूक माटी की भी रचना की थी. जिसको कई संस्थानों में पोस्ट ग्रेजुएशन के हिन्दी पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाता है. आचार्य विद्यासागर कई धार्मिक कार्यों में लोगों के लिए प्रेरणास्रोत भी रहे थे.
आचार्य विद्यासागर महाराज अपनी कठोर तप प्रथाओं और आध्यात्मिक विकास के प्रति अटूट समर्पण के लिए प्रसिद्ध थे. अहिंसा, आत्म-अनुशासन और समभाव के प्रति उनकी प्रतिबद्धता ने उन्हें अनगिनत भक्तों और आध्यात्मिक साधकों का गहरा सम्मान और प्रशंसा अर्जित की थी. ज्ञान और करुणा से ओत-प्रोत उनकी शिक्षाओं ने व्यक्तियों को आध्यात्मिक पूर्णता का जीवन अपनाने के लिए प्रेरित किया था.
आचार्य विद्यासागर महाराज का प्रभाव आध्यात्मिकता के दायरे से कहीं आगे तक फैला हुआ था. उन्होंने भारत के बुन्देलखण्ड क्षेत्र में शिक्षा और सामाजिक कल्याण पहलों को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. उनके प्रयासों से स्कूलों, अस्पतालों और सामुदायिक केंद्रों की स्थापना हुई, जिससे अनगिनत व्यक्तियों के जीवन में बदलाव आया और उनका उत्थान हुआ.
धर्म-प्रवचन में थी रुचि
विद्यासागर का बाल्यकाल घर तथा गांव वालों के मन को जीतने वाली आश्चर्यकारी घटनाओं से भरा रहा था. खेलने-कूदने की उम्र में वे माता-पिता के साथ मन्दिर जाया करते थे. धर्म-प्रवचन सुनना, शुद्ध सात्विक आहार करना, मुनि आज्ञा से संस्कृत के कठिन सूत्र एवं पदों को कंठस्थ करना धीरे-धीरे उनके जीवन का हिस्सा बन गया था. उनकी यही आदतें आध्यात्म मार्ग पर चलने का संकेत दे रही थीं. पढ़ाई हो या होमवर्क, सभी को अनुशासित और क्रमबद्ध तौर पर पूरा करके ही संतुष्ट होते थे.
इसेक अलावा बचपन से ही मुनि-चर्या को देखने, उसे स्वयं आचरित करने की भावना से ही बावडी में स्नान के साथ पानी में तैरने के बहाने आसन और ध्यान में बैठ जाते थे. मन्दिर में विराजित मूर्ति के दर्शन के समय उसमे छिपी विराटता को जानने का प्रयास करते थे. उनके दृढ़निश्चय और संकल्पवान होने का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक बार उन्हें बिच्छु ने काट लिया था, लेकिन असहनीय दर्द होने पर भी वह रोए नहीं बल्कि उसे नजरअंदाज कर दिया. इतना ही नहीं पीड़ा सहते हुए भी उन्होंने अपनी दिनचर्या में शामिल धार्मिक-कार्यों के साथ ही सभी कार्य वैसे ही किए जैसे हर दिन नियम से करते थे.
विद्याधर से आचार्य विद्यासागर महाराज तक का सफर
विद्यासागर ने त्याग, तपस्या और कठिन साधना के मार्ग पर चलते हुए महज 22 साल की उम्र में 30 जून 1968 को अजमेर में आचार्य ज्ञानसागर महाराज से मुनि दीक्षा ली थी. गुरुवर ने उन्हें उनके नाम विद्याधर से मुनि विद्यासागर की उपाधि दी थी और 22 नवंबर 1972 को अजमेर में ही गुरुवर ने आचार्य की उपाधि देकर उन्हें मुनि विद्यासागर से आचार्य विद्यासागर का दर्जा दिया था. 1 जून 1973 में गुरुवर के समाधि लेने के बाद मुनि विद्यासागर आचार्य, श्री विद्यासागर जी महाराज की पदवी के साथ जैन समुदाय के संत बने.
लोगों का मानना है कि गृह त्याग के बाद से ठंड, बरसात और गर्मी से विचलित हुए बिना आचार्य ने कठिन तप किया था और उनका त्याग, तपस्या और तपोबल ही था कि जैन समुदाय ही नहीं बल्कि सारी दुनिया उनके आगे नतमस्तक है. जिनमें देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी शामिल हैं.
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